राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र (Folk Instruments of Rajasthan)-
- लोक वाद्य लोक संगीत के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं तथा बिना वाद्य के संगीत सूना है।
- वाद्य यंत्र के प्रयोग से गीतों व नृत्यों की माधुर्य वृद्धि के साथ ही वातावरण निर्माण एवं किसी कलाकार की भवाभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाया जाता है।
- राजस्थान के लोकसंगीत में राजस्थान के परिवेश, स्थित व भावों के अनुरूप लोक वाद्यों का प्रचुर विकास हुआ है जिनका वर्गीकरण निम्न प्रकार से है।-
- राजस्थान में लोक वाद्य यंत्र के प्रकार-
- (अ) तत् वाद्य यंत्र
- (ब) सुषिर वाद्य यंत्र
- (स) अवनद्ध वाद्य यंत्र
- (द) घन वाद्य यंत्र
(अ) तत् वाद्य यंत्र-
- जिन वाद्य यंत्रों में तारों के द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती है वे तत् वाद्य यंत्र कहलाते हैं।
- तत् वाद्य यंत्र दो प्रकार के होते हैं। जैसे-
- (I) तत् वाद्य यंत्र- वे तत् वाद्य यंत्र जिनको नाखूनों या अंगुलियों की सहायता से बजाया जाता है तत् वाद्य यंत्र कहलाते हैं अथवा तार वाले वाद्य यंत्र जिनको नाखूनों या अंगुलियों की सहायता से बजाया जाता है तत् वाद्य यंत्र कहलाते हैं।
- (II) वितत वाद्य यंत्र- वे तत् वाद्य यंत्र जिनको गज की सहायता से बजाया जाता है वितत वाद्य यंत्र कहलाते हैं अथवा कुछ विशेष तार वाले वाद्य यंत्र जिनको गज की सहायता से बजाया जाता है वितत वाद्य यंत्र कहलाते हैं।
- गज- यह एक लकड़ी होती है जिसकी सहायता से तत् वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
राजस्थान के प्रमुख तत वाद्य यंत्र-
- 1. इकतारा
- 2. सारंगी
- 3. रावणहत्था
- 4. कमायचा
- 5. तंदुरा/ चौतारा/ निशान/ तम्बूरा/ वेणों
- 6. जंतर
- 7. भपंग
- 8. रवाज
- 9. रवाब
- 10. चिकारा
- 11. सुरिंदा
- 12. दुकाको
- 13. गुजरी
1. इकतारा-
- यह तत वाद्य यंत्र है।
- यह आदि वाद्य यंत्र है जिसे नारद जी द्वारा बजाया जाता था।
- एकतार का अर्थ है- एक तार
- यह वाद्य यंत्र गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फँसाकर बनाया जाता है।
- तुम्बे का एक हिस्सा काटकर इसे बकरे के चमड़े से मढ़ दिया जाता है।
- बाँस पर दो खुँटियां लगी होती है जिन पर ऊपर नीचे दो तार बंधे होते हैं।
- यह एक ही हाथ में पकड़कर बजाया जाता है तथा दूसरे हाथ में करताल बजायी जाती है।
- इसको मुख्यतः कालबेलिया एवं नाथ संप्रदाय के साधु-संन्यासी बजाते हैं।
2. सारंगी-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह वाद्य यंत्र सागवान, कैर, तून व रोहिड़े की लकड़ी से बनाया जाता है।
- यह सर्वश्रेष्ठ वाद्य यंत्र माना जाता है।
- इसमें कुल 27 तार होते हैं।
- इसमें ऊपर की तारें बकरे की आंतों से बनी होती है।
- इसका वादन गज से किया जाता है जो घोड़े की पूंछ के बालों से निर्मित होता है।
- गज को बिरोजा पर घिसकर बजाने पर तारों से ध्वनि उत्पन्न होती है।
- राजस्थान में दो तरह की सांरगियां प्रचलित है। जैसे-
- (I) सिन्धी सारंगी
- (II) गुजरातण सारंगी
- गुजरातण सारंगी की तुलना में सिन्धी सारंगी आकार में बड़ी, उन्नत एवं विकसित होती है।
- गुजरातण सारंगी में तारों की संख्या केवल 7 होती है।
- मारवाड़ के जोगियों द्वारा गोपीचन्द, भृतहरि, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय सारंगी का प्रयोग किया जाता है।
- बाड़मेर व जैसलमेर क्षेत्र की लंगा जाति द्वारा सारंगी का प्रयोग किया जाता है।
- मेवात क्षेत्र में जोगियों द्वारा सारंगी का प्रयोग किया जाता है।
- लंगा जाति (बड़नामा) के यासीन खान को सारंगी के लिए सरआगाखान अवार्ड दिया गया है।
3. रावणहत्था-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह राजस्थान का प्राचीनतम व बहुप्रचलित लोक वाद्य यंत्र है।
- इसे वायलिन का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है।
- इसे बनाने के लिए नारियल की अर्द्ध कटोरी पर बकरी की खाल मढ़ी जाती है जो 80-90 सेमी लम्बे बाँस के साथ लगी होती है।
- बाँस में जगह-जगह छिद्र कर खूंटियां लगा दी जाती है जिनमें 9 तार बंधे होते हैं।
- इसका वादन गज से किया जाता है जो घोड़े की पूंछ के बाल से निर्मित होता है।
- गज के अंतिम छोर पर घुंगरू बंधे होते हैं।
- इस वाद्य यंत्र का प्रयोग मुख्यतः भोपों व भीलों द्वारा पाबूजी की फड़ व अन्य देवी-देवताओं के भजन व गीत गाते समय किया जाता है।
- पाबूजी की फड़ बांचते समय भोपों द्वारा इस वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है।
- डूंगजी-जवार जी की फड़ बांचते समय भोपों द्वारा इस वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है।
4. कमायचा-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह एक ईरानी वाद्य यंत्र है।
- यह आम के पेड़ की एक ही लकड़ी से बनता है जिसमें कोई ज्वाइंट नहीं होता है।
- यह सारंगी के समान होता है लेकिन इसकी तबली सारंगी की तबली की तुलना में चौड़ी, गोल व चमड़े से मढ़ी होती है।
- इसकी चमड़े से मढ़ी तबली पर खूँटी प्रणाली एवं घुड़च उपस्थित रहते हैं।
- इशकी तबली के चौड़े एवं गोलाकार होने के कारण इसकी ध्वनि में भारीपन व गूंज होती है।
- इसका वादन गज से किया जाता है जो घोड़े की पूंछ के बाल से बना होता है।
- इसका गज सारंगी के गज से लगभग डेढ़ गुना बड़ा होता है।
- इसमें 17 ताप होते हैं। जैसे-
- (I) 3 तार- बकरे की आंत से बने होते हैं।
- (II) 14 तार- तांबे या लोहे के बने होते हैं।
- इसका सर्वाधिक प्रयोग मुस्लिम शेखों द्वारा किया जाता है जिन्हें मांगणियार कहते हैं।
- मुस्लिम शेखों (मांगणियार) द्वारा इसका प्रयोग लोकगीत व मांड गायन के दौरान किया जाता है।
- साकर खाँ इस वाद्य यंत्र के प्रसिद्ध कलाकार है जिन्हें कमायचा के लिए पद्मश्री पुरस्कार भी दिया गया है।
- इसका प्रयोग बाड़मेर व जैसलमेर में मांगणिया व लंगा जाति द्वारा किया जाता है।
5. तंदुरा/ चौतारा/ निशान/ तम्बूरा/ वेणों-
- तंदुरा को ही चौतारा, निशान, तम्बूरा, वेणों आदि नामों से जाना जाता है।
- यह तामपूरे व सिचार से समान होता है।
- यह लकड़ी से बना होता है जिसमें 4 तार होते हैं।
- वादक इसे बायें हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ की पहली अंगुली में मिजराब पहनकर बजाता है।
- इसे मुख्यतः रामदेवजी के भजन गाते समय कामड़ जाति के लोग बजाते हैं।
- निर्गुण भजन करने वाले नाथपंथी भी इसको बजाते हैं।
6. जंतर-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह वीणा के समान होता है।
- इसे वीणा का प्रारम्भिक रूप भी कहा जा सकता है क्योंकि वीणा के समान इसमें भी दोनों ओर 2 तुम्बे होते हैं जो की गूंज के साथ ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
- यह अंदर से खोखला होता है।
- इसकी खोकली संरचना को डाँड कहते हैं जो बाँस की बनी होती है।
- इस पर मगर की खाल के 22 पर्दे मोम से चिपकाये जाते हैं तथा इन पर्दों के ऊपर 5-6 तार लगे होते हैं जिन्हें हाथ की अंगुली या अंगूठे से बजाया जाता है।
- इसका वादन खड़े होकर गले में लटकाकर किया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः गुर्जर जाति के भोपों द्वारा देवनारायण जी की फड़ व भजन गाते समय किया जाता है।
- इसके बिना इस फड़ का बांचना अधूरा माना जाता है।
7. भपंग-
- इसका आकार डमरू जैसा होता है।
- यह खोखले तम्बू के गोले से बना दो मुंहा वाद्य यंत्र है।
- इसको एक ओर से बकरे के चमड़े से मढ़ते है व दूसरी ओर से खुला छोड़ दिया जाता है।
- चमड़े के बीच में से छेद कर एक तार निकाला जाता है जिसे एक खूँटी से बाँध दिया जाता है।
- खूँटी को तानते व ढीला करते हुए विभिन्न ध्वनियां निकाली जाती है।
- इसे काँख में दबाकर बजाते हैं।
- वर्तमान में इसे प्लास्टिक के तन्तु से बनाया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः मेवात क्षेत्र (अलवर) के जोगी जाति या समुदाय द्वारा प्रधानता से किया जाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त जहुर खान मेवाती तथा उमर फारूक मेवाती इसके प्रसिद्ध कलाकार है।
8. रवाज-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह सारंगी व कमायचे के समान वाद्य यंत्र है।
- इसे गज के स्थान पर नाखून से आघात करके बजाया जाता है।
- इसमें 8 तुरपें 12 तार होते हैं।
- इसे ढफ भी कहा जाता है।
- इसे मेवाड़ के राव व भाट जाति के लोगो द्वारा बजाया जाता है।
9. रवाब-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह मुख्यतः भाट जाति के लोगों द्वारा बजाया जाता है।
- इसमें 4 तार होते हैं।
10. चिकारा-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह कैर की लकड़ी का बना होता है।
- इसमें एक सिरा प्याले के आकार का होता है जिसमें 3 तार बंधे होते हैं।
- इसे छोटी गज की सहायता से बजाया जाता है।
11. सुरिंदा-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह रोहिड़े की लकड़ी का बना होता है।
- इसके गज पर घुंगरू बंधे होते हैं।
- इसे गायन के साथ नहीं बजाया जाता है।
- राजस्थान लोकधुन में इसी वाद्य यंत्र का प्रयोग किया गया है।
12. दुकाको-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- इसे घुटनों के बीच दबाकर बजाया जाता है।
- मुख्यतः इसका प्रयोग भील जाति के लोगों द्वारा दीपावली के अवसर पर किया जाता है।
13. गुजरी-
- यह तत् वाद्य यंत्र है।
- यह रावणहत्था से थोड़ा छोटा उसी प्रकार का वाद्य यंत्र है।
- इसमें 5 तार होते हैं।
- इसका गज अर्द्धचंद्राकार होता है।
(ब) सुषिर वाद्य यंत्र-
- वे वाद्य यंत्र जिन्हें फूँक मारकर बजाया जाता है सुषिर वाद्य यंत्र कहलाते हैं।
राजस्थान के प्रमुख सुषिर वाद्य यंत्र-
- 1. अलगोजा
- 2. बांसुरी
- 3. शहनाई
- 4. पूँगी
- 5. शंख
- 6. सींगी
- 7. बांकियां
- 8. मशक
- 9. भूंगल
- 10. सतारा
- 11. नागफणी
- 12. नड़
- 13. मोरचंग
- 14. करणा
- 15. तुरही
- 16. मुरला या मुरली
- 17. सुरनाई
- 18. टोटो
- 19. बरगू
- 20. हरनाई
1. अलगोजा-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह राजस्थान का राज्य वाद्य यंत्र है।
- यह बांसुरी की तरह होता है जिसमें दो बांसुरियां आपस में जुड़ी होती है जो एक साथ बजायी जाती है।
- इसमें सामान्यतः एक बांसुरी का आकार दूसरी बांसुरी से बड़ा होता है।
- इसमें कुल 11 छेद होते हैं। जैसे-
- (I) पहली बांसुरी में 7 छेद
- (II) दूसरी बांसुरी में 4 छेद
- इसमें स्वरों की शुद्धता के लिए छेद एक निश्चित दूरी पर होते हैं।
- वादक दो अलगोजे मुँह में रखकर एक साथ बजाता है जिसमें एक अलगोजे पर 'सा' ध्वनि बजती रहती है तथा दूसरे अलगोजे पर भिन्न-भिन्न स्वर निकाले जाते हैं।
- वादक बिना रूके तेजी से इसमें फूँकता है जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है तथा दोनों तरफ अपनी अंगुलियों का प्रयोग कर स्वरों में भिन्नता लाता है।
- यह मुख्यतः जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जयपुर, टोंक आदि क्षेत्रों में बजाया जाता है।
- इसे वीर तेजाजी की जीवन गाथा, डिग्गीपुरी का राजा, ढोला-मारू नृत्य और चक्का भवाई नृत्य में भी बजाया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः भील व कालबेलिया जाति द्वारा किया जाता है।
- जयपुर के पदमपुरा गाँव के प्रसिद्ध कलाकार रामनाथ चौधरी अलगोजा वाद्य यंत्र को नाक से बजाते हैं।
2. बांसुरी-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह एक प्राचीन लोक वाद्य यंत्र है जो समय के साथ परिष्कृत होकर विभिन्न संगीत कलाओं का अभिन्न अंग बन चुका है।
- यह पारंपरिक रूप से बाँस की पोली नली से बनाया जाता है।
- पोली नली में स्वरों के लिए 7 छेद बनाये जाते हैं जो स्वरों की शुद्धता के लिए एक निश्चित दूरी पर होते हैं।
- इसमें एक छोर पर एक छेद होता है जो वादक द्वारा फूँक मारकर संगीत उत्पन्न करने के लिए होता है। मुख्यतः इसका यह छोर क्षैतिज रूप से नीचे की ओर तिरछा होता है।
- हरी प्रकाश चौरसिया इसके प्रसिद्ध कलाकार है।
- भगवान श्री कृष्ण द्वारा भी बांसुरी बजायी जाती थी।
3. शहनाई-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसे सुंदरी भी कहा जाता है।
- यह सुषिर वाद्य यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ व सुरीला वाद्य यंत्र है।
- इसकी ध्वनि शुभ मानी जाती है।
- विवाह के शुभ अवसर पर इसे बजाया जाता है।
- यह शीशम (टाली) या सागवान की लकड़ी से बनी होती है।
- इसका आकार चिलम के समान होता है।
- इसमें 8 छेद होते हैं।
- इसका पत्ता ताड़ के पत्ते का बना होता है।
- मुख्यतः इसे नगाड़े की संगत में बजाया जाता है।
- मेवाड़ की माँगीबाई इस वाद्य यंत्र की प्रसिद्ध लोकप्रिय कलाकार है।
- बिस्मिल्ला खान भी इसके प्रसिद्ध कलाकार है।
4. पूँगी-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसमें सर्प को मोहित करने की अद्भुत क्षमता होती है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः सपेरों द्वारा किया जाता है।
- यह घीया तुम्बे की बनी होती है। अर्थात् छोटी लौकी के तुम्बे की बनी होती है।
- इसका ऊपरी हिस्सा लंबा एवं नीचे का हिस्सा गोल होता है।
- गोल हिस्से में दो छिद्रित नालियां लगाई जाती है जिसमें हवा फूँकने पर एक नली में से 'सा' स्वर बजता रहता है जबकि दूसरी नली से भिन्न-भिन्न स्वर उत्पन्न किए जाते हैं।
- यह कालबेलिया जाति व आदिवासियों का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है।
5. शंख-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह जन्तु का कवच होता है जो समुद्र से प्राप्त होता है।
- इसका प्रयोग देवी-देवताओं की आराधना (आरती) के दौरान मंदिर में किया जाता है।
- इसका प्रयोग युद्ध को प्रारम्भ करने से पूर्व भी किया जाता है।
6. सींगी-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह बलदार सींग के समान होता है।
- इसे होठों पर रखकर कंठ से उत्पन्न ध्वनि से बजाया जाता है।
- इसे जोगियों द्वारा बजाता जाता है।
7. बांकियां-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल का बना होता है।
- यह बिगुल की आकृति के समान होता है।
- इसके एक ओर छोटे मुँह में फूँक मारकर बजाया जाता है।
- इसके साथ ढ़ोल व काँसी की थाली बजायी जाती है।
- यह सरगड़ा जाति का खानदानी वाद्य यंत्र है।
8. मशक-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसे बकरी के चमड़े की सिलाई कर बनाया जाता है।
- इसमें एक ओर से मुँह से हवा भरी जाती है तथा दूसरी ओर दो नलियों से हवा के माध्यम से स्वर निकलते हैं।
- इसकी ध्वनि पूँगी की तरह है।
- इसका प्रयोग भेंरूजी के भोपें अधिक करते हैं।
9. भूंगल-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसे रणभेरी कहते हैं।
- यह पीतल की लम्बी नली से बना होता है।
- यह मेवाड़ की भवाई जाति का प्रमुख वाद्य यंत्र है।
- इसे गाँव में खेल शुरू होने से पहले जनता को एकत्रित करने के लिए बजाया जाता है।
- बिगुल की भाँति इसे युद्ध शुरू करने से पूर्व भी बजाया जाता है।
10. सतारा-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह अलगोजा, बांसुरी व शहनाई का मिश्रित रूप है।
- अलगोजे की भाँति इसमें दो लम्बी बांसुरियां होती है जिनमें से एक बांसुरी आधार स्वर देती है तथा दूसरी बांसुरी के 6 छेदों को बजाकर भिन्न-भिन्न स्वर उत्पन्न किए जाते हैं।
- इसकी बड़ी विशेषता यह है कि किसी भी इच्छित छेद को बंद करके आवश्यकतानुसागर सप्तक में परिवर्तित किया जा सकता है। इस सुविधा ने इसे अत्यंत उन्नत बना दिया है।
- इस वाद्य को मुख्यतः जैसलमेर व बाड़मेर की जन-जातियों द्वारा प्रयोग किया जाता है।
- इसे गडरिये, मेघवाल तथा मुस्लिम बजाते हैं।
11. नागफणी-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल की सर्पाकार नही का बना होता है।
- इसके पिछले हिस्से में छेद होता है।
- इससे घोरात्मक ध्वनि उत्पन्न होती है।
12. नड़-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह कगौर वृक्ष की 1 मीटर लम्बी लकड़ी का बना होता है।
- इस पर सिंधी संस्कृति का पूर्ण प्रभाव है। अर्थात् यह सिंधी वाद्य यंत्र है।
- करणा भील इसके प्रसिद्ध कलाकार है।
13. मोरचंग-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह लोहे का बना छोटा सा वाद्य यंत्र है।
- इसे होठों के बीच रखकर बजाया जाता है।
- इसमें एक धातु के बने गोलाकार हैंडिल से दो छोटी व लम्बी धातु की छड़े निकली होती है।
- इन दो छड़ों के बीच में लोहे की एक पतली लम्बी रीड रहती है जिसके मुँह पर थोड़ा सा घुमाव दे दिया जाता है।
- इसे होठों में दबाने के बाद श्वास-प्रश्वास से रीड में कंपन्न होता है तथा इस तरंगित रीड के मुड़े हुए हिस्से पर अंगुली से आघात करके स्वर व लयपूर्ण ध्वनि निकाली जाती है।
- इसे लंगा जाति के लोगों के द्वारा सतारा व सारंगी के साथ बजाया जाता है।
14. करणा-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल धातु का बना होता है।
- यह 7 से 8 फीट लम्बा नोकदार वाद्य यंत्र है।
- इसके सकड़े मुँह पर एक छेद होता है जिसमें सुरनाई जैसी नली लगी होती है।
15. तुरही-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसकी आकृति नोकदार होती है।
- यह पीतल की दो मुँहा नली से बना वाद्य यंत्र है।
- इसका एक मुँह छोटा तथा दूसरा मुँह चौड़ा होता है।
16. मुरला या मुरली-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- यह पूँगी का परिष्कृत रूप है।
- इसे नलीदार तुम्बे के नीचे चौड़े भाग में दो बाँस की नालियाँ फँसाकर बनाया जाता है।
- इसकी एक नली से ध्वनि तथा दूसरी नली से स्वर उत्पन्न किया जाता है।
17. सुरनाई-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
- इसकी आकृति शहनाई से समान होती है।
- इसके मुँह पर खजूर, ताड़ व कगौर के वृक्ष का सरकण्डा लगा होता है।
- इसे गीला करके बजाया जाता है।
- इसे ढोली, लंगा, मांगणियार, ढाढ़ी जाति के लोगों द्वारा विवाह या मांगलिक अवसर पर बजाया जाता है।
18. टोटो-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
19. बरगू-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
20. हरनाई-
- यह सुषिर वाद्य यंत्र है।
(स) अवनद्ध वाद्य यंत्र या ताल वाद्य यंत्र-
- चमड़े से मढ़े वे वाद्य यंत्र जिनके चमड़े वाले भाग पर आघात कर ताल उत्पन्न की जाती है अवनद्ध वाद्य यंत्र कहलाते हैं।
- अवनद्ध वाद्य यंत्र को ताल वाद्य यंत्र भी कहा जाता है।
राजस्थान के प्रमुख अवनद्ध या ताल वाद्य यंत्र-
- 1. ढोल
- 2. ढाक
- 3. ढोलक
- 4. डमरू
- 5. डैंरू
- 6. डफ
- 7. मृदंग
- 8. पाबूची के माटे
- 9. नौबत
- 10. नगाड़ा
- 11. चंग
- 12. खंजरी
- 13. धौंसा
- 14. तासा
- 15. दमामा (टामक)
- 16. घेरा
- 17. मादल
- 18. पखावज
1. ढोल-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह एक दो मुँहे बैरल की आकृति का होता है।
- इसे विभिन्न संगीत कलाओं में सहायक वाद्य के रूप में बजाया जाता है।
- यह पहले लकड़ी का बनाया जाता था। लेकिन अकबर के समय से यह लोहे का बनने लगा।
- इसे लकड़ी या लोहे के गोल घेरे के खोल को दोनों ओर से चमड़े से मढ़कर बनाया जाता है।
- इसे एक मांगलिक वाद्य यंत्र माना जाात है।
- राजस्थान में इसे बजाने के 12 प्रकार है। जैसे- गैर का ढोल, नाच का ढोल, आरती का ढोल आदि।
- लोक नृत्यों में भी इसे बजाया जाता है जैसे- जालौर का ढोल नृत्य, भीलों का गैर नृत्य, शेखावाटी का कच्छी घोड़ी नृत्य।
- यह वादक द्वारा गले में डालकर हाथों व लकड़ी के डंडे दोनों से बजाया जाता है।
- राजस्थान में ढोली, सरगड़े, भील, भांभी आदि इसे कुशलता से बजाते हैं।
2. ढाक-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह डैंरु के समान होता है लेकिन उससे आकार में बड़ा होता है।
- इसे विभिन्न अवसरों व त्योहारों पर बजाया जाता है।
- गुर्जर जाति के लोग इसे गोठा गाते समय बजाते हैं।
- यह दोनों पैरों पर रखकर बजाया जाता है।
3. ढोलक-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- इसकी मढाई ढोल की तरह होती है।
- यह लकड़ी को खोखला करके बनाया जाता है जिसके दोनों छोरों का व्यास लगभग समान होता है।
- इसका मध्य भाग कुछ चौड़ा होता है।
- इसके दोनों छोरों पर कड़ियां लगी होती है जिनको रस्सियों से जोड़ा जाता है।
- राजस्थान में नगारची, सांसी, कंजर, ढाढ़ी, मीरासी, कव्वाल, भवाई व विभिन्न संप्रदायों के साधु संत आदि इसे बजाते हैं।
- भवाई नृत्य के दौरान प्रयोग में ली जाने वाली ढोलक आकार में सबसे बड़ी होती है।
- इसके साथ मंजीरा बजाया जाता है।
- ढोलक अलीगढ़ व नीमच का प्रसिद्ध है।
4. डमरू-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह दो मुँहा छोटे बैरल की आकृति का होता है।
- इसके दोनों मुँहों पर चमड़ा मढ़ा जाता है।
- इसके बीच के पतले हिस्से में चमड़े की दो डोरियां बंधी होती है जिनके सिरों पर घूंगरू या मोती लगे होते हैं।
- इसे बजाने के लिए बीच से पकड़कर हिलना पड़ता है।
- यह भगवान शिव का वाद्य यंत्र है।
- इसका छोटा रूप डुग डुगी होता है।
5. डैंरू-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह डमरू का बड़ा रूप है।
- यह आम की लकड़ी का बना होता है।
- इसे बायें हाथ से पकड़ कर दाहिने हाथ द्वारा लकड़ी की डंडी से आघात कर बजाया जाता है।
- मुख्यतः इसके साथ छोटी थाली व कांसे का कटोरा भी बजाया जाता है।
6. डफ-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह लोहे के बने गोल घेरे पर बकरे की खाल चढ़ाकर या मढ़कर बनाया जाता है।
- इसे एक हाथ द्वारा डंडे की सहायता से आघात कर बजाया जाता है।
- इसका छोटा रूप डफली होता है।
7. मृदंग-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह ताल वाद्य यंत्र में सर्वाधिक महत्पूर्ण वाद्य यंत्र है।
- इसे बीजा, सवन, सुपारी, वट (बड़) आदि वृक्षों की लकड़ी को खोकला करके बनाया जाता है।
- इसका एक मुँह सकड़ा व दूसरा मुँह चौड़ा होता है।
- दोनों मुँहों को बकरे की खाल से मढ़ा जाता है।
- दोनों मुँहों पर मढ़ी हुई बकरे की खाल को मृदंग की परिधि पर चमड़े की बनी रस्सियों से परस्पर जोड़ा जाता है।
- धार्मिक उत्सवों पर इसका प्रयोग किया जाता है।
- राजस्थान में रावल, भवाई व राबिया जाति के लोग नृत्य के साथ भी इसका प्रयोग करते हैं।
8. पाबूची के माटे-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह मिट्टी के दो बड़े बर्तन के मुख पर खाल मढ़कर एवं रस्सी से बाँधकर बनाया जाता है।
- इसे थोरी व नायक जाति के लोग पाबूजी के पवाड़े गाते समय बजाते हैं।
9. नौबत-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- इसे 3-4 फीट गहरी अर्द्ध अंडाकार कुंडी को भैंसों की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
- इसे बबूल या शीशम के डंकों से आघात करके बजाया जाता है।
- इसकी आवाज अत्यंत गंभीर होती है।
- यह मंदिरों में प्रयुक्त होने वाला ताल वाद्य यंत्र है।
- इसे महलों के मुख्य द्वारा पर भी बजाया जाता है।
10. नगाड़ा-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह युगल रूप में होता है जिसमें एक को नर नगाड़ा तथा दूसरे को मादा नगाड़ा कहा जाता है।
- यह सुपारी की आकृति जैसा होता है जिसका व्यास 1-2 फीट तक होता है।
- इसे भैंसे की खाल से मढ़ा जाता है।
- लोकनृत्यों में इसे शहनाई के साथ बजाया जाता है।
- यह मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता है।
- ढोल, राणा, मीरासी जातियों के लोग इसे लोकनृत्यों में प्रधानता से बजाते हैं।
11. चंग-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह राजस्थान का लोकप्रिय वाद्य है।
- इसे होली के अवसर पर मुख्यतः शेखावाटी क्षेत्र में बजाया जाता है।
- यह लकड़ी के गोल घेरे के रूप में होता है जिसे एक ओर से बकरे या भेड़ की खाल से मढ़ा जाता है तथा दूसरी ओर खुला छोड़ा जाता है।
- इसे बायें हाथ की हथेली पर टिकाकर दाहिने हाथ से गीत गाते समय बजाया जाता है।
- कालबेलिया जाति के लोग इसे प्रधानता से बजाते हैं।
- इस पर मुख्यतः कहरवा ताल बजायी जाती है।
12. खंजरी-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह आम की लकड़ी से बना होता है जिसके एक ओर खाल से मढ़ा जाता है।
- यह ढफ का छोटा रूप है।
- इसे बायें हाथ से पकड़कर दायें हाथ की हथेली व अंगुलियों से बजाता जाता है।
- कामड़ बालई, भील, नाथ, कालबेलिया आदि लोग इसे मुख्य रूप से बजाते हैं।
13. धौंसा-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह आम या फरास की लकड़ी के घेरे पर भैंसे की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
- इसे लकड़ी के मोटे डंडों की सहायता से बजाया जाता है।
14. तासा-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह लोहे या मिट्टी के चपटे कटोरों पर बकरे की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
- इसे गले में लटकाकर दो पतली डंडियों से बाजाया जाता है।
- यह मस्लिम समुदाय में अधिक प्रचलित है।
15. दमामा (टामक)-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह कढ़ाई के आकार का लोहे का बहुत बड़ा नगाड़ा है जिसे भैंसे की खाल से मढ़कर बनाया जाात है।
- इसे दो बड़े व भारी डंडों से बजाया जाता है।
- इसे मुख्य रूप से युद्ध के वाद्यों के साथ बजाया जाता है।
- यह मेवात क्षेत्र में बजाया जाता था।
16. घेरा-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह डफ के जैसा होता है।
- यह अष्ट भुजाकार आकृति का होता है जिसके एक ओर चमड़ा मढ़ा जाता है।
- लकड़ी के डंडों के ऊपरी भाग पर कपड़ा लपेटकर इसे बजाया जाता है।
- यह होली के अवसर पर बजाया जाता है।
17. मादल-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह प्राचीन लोक वाद्य यंत्र है।
- इसकी आकृति मृदंग के समान होती है।
- यह मिट्टी से बना होता है।
- इसके दो मुँह होते हैं जिसमें एक मुँह छोटा व दूसरा मुँह बड़ा होता है।
- इसके दोनों मुँहों को हिरण या बकरे की खाल से मढ़ा जाता है।
- भील जाति के लोग गवरी नृत्य के साथ तथा शादियों में इसे बजाते हैं।
- इसके साख थाली वाद्य भी बजाया जाता है।
18. पखावज-
- यह अवनद्ध वाद्य यंत्र है।
- यह दो मुँहा खोखली लकड़ी के दोनों छोरों पर चमड़े को मढ़कर बनाया जाता है।
- यह प्राचीन मृदंग की आकृति के समान होता है।
- इसके प्रसिद्ध वादक पंडित पुरुषोत्तम दास थे।
- भारत सरकार ने पंडित पुरुषोत्तम दास को कला के क्षेत्र में 1964 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
- पंडित पुरुषोत्तम दास के द्वारा 'मृदंग वादन' नामक पुस्तक लिखी गई।
(द) घन वाद्य यंत्र-
- वे वाद्य यंत्र जो धातु से निर्मित होते हैं घन वाद्य यंत्र कहलाता हैं।
राजस्थान के प्रमुख घन वाद्य यंत्र-
- 1. मंजीरा
- 2. झांझ
- 3. थाली
- 4. चिमटा
- 5. घंटा (घड़ियाल)
- 6. झालर
- 7. घुंगरू
- 8. भरनी
- 9. घड़ा
- 10. खड़ताल
- 11. करताल
- 12. रमझोल
- 13. घुरालियों
1. मंजीरा-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल व काँसे की मिश्रित धातु का छोटा गोलाकार वाद्य यंत्र होता है।
- यह हमेशा जोड़े में होता है।
- इसमें दो मंजीरों को आपस में घर्षित कर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
- होली व निर्गुण भक्ति के भजन गाते समय इसके साथ तंदुरे व इकतारे का प्रयोग किया जाता है।
- कामड़ जाति की महिलाएं तेरहताली नृत्य के दौरान अपने शरीर पर 13 मंजीरे धारण कर मधुर ध्वनि उत्पन्न करती है।
- रामदेवजी के भोपें भी भजन गायन के दौरान इसका प्रयोग करते हैं।
2. झांझ-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह मंजीरे का बड़ा रूप होता है।
- इसे ढोल व तासे के साथ बजाया जाता है।
- यह शेखावाटी क्षेत्र में कच्छी घोड़ी नृत्य में तासे के साथ बजाया जाता है।
- यह शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है।
3. थाली-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह कांसे की बनी होती है जिसके किनारे पर छेद कर उसमें रस्सी बाँधकर अँगूठे से लटकाकर लकड़ी के डंडे से आघात कर बजाया जाता है।
- इसका प्रयोग चरी नृत्य के समय किया जाता है।
- भील, कालबेलिया आदि जातियां इसे विशेष रूप से बजाती है।
4. चिमटा-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह लोहे की दो पतली पट्टिकाओं से मिलकर बना होता है।
- इन पट्टिकाओं के बीच लोहे की गोल-गोल छोटी पत्तियां लगी होती है।
- इसे बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ की अंगुलियों से भजन-कीर्तन के समय बजाया जाता है।
5. घंटा (घड़ियाल)-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल या अन्य धातु से बना गोलाकर वाद्य यंत्र होता है।
- इसे डोरी से लटकाकर हथोड़े व डंडे से आघात कर बजाया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः मंदिरों में किया जाता है।
- इसका छोटा रूप घंटी कहलाता है।
6. झालर-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह कांसे या तांबे की बनी चक्राकार प्लेट (तश्तरी) होता है जिसे लकड़ी की डंडी से आघात कर बजाया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः मंदिरों में आरती के समय किया जाता है।
7. घुंगरू-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह पीतल या कांसे का बना गोल वाद्य यंत्र है।
- इसके अंदर लोहे के छोटे 6 कंकड़ रहते है।
- नृत्य के दौरान इसे पेरों में बांधते हैं।
8. भरनी-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह मिट्टी के मटके के संकरे मुंह पर कांसे की प्लेट ढककर बनाया जाता है।
- इसे दो डंडियों की सहायता से बजाया जाता है।
- यह मुख्यतः भरतपुर व अलवर क्षेत्र में लोक देवताओं के यहाँ सर्प के काटे हुए व्यक्ति का इलाज करते समय बजाया जाता है।
9. घड़ा-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह मिट्टी का बना होता है।
- इसका मुँह छोटा होता है।
- वादक इसे दोनों हाथों में उठाकर मुँह से उसके अंदर फूंक मारते हुए अपने अंदाज में हिलाता है जिससे संगीत उत्पन्न होता है।
- यह जैसलमेर, बाड़मेर भक्ति संगीत के दौरान बजाया जाता है।
10. खड़ताल-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- खड़ताल शब्द करताल से बना है जिसका अर्थ है- हाथों से उत्पन्न ध्वनि
- यह लकड़ी के चार छोटे-छोटे चिकने व पतले टुकड़ों से बना होता है।
- इसे दोनों हाथों में लेकर बजाया जाता है।
- इसे इकतारे के साथ बजाया जाता है।
- बाड़मेर क्षेत्र के प्रसिद्ध कलाकार सद्दीक खान व गाजी खान बरना खड़ताल बजाने में दक्ष है।
- सद्दीक खान को खड़ताल का जादूगर कहा जाता है।
11. करताल-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- इसमें दो चोकोर लकड़ी के टुकड़ो के बीच पीतल की छोटी-छोटी गोल तश्तरियां लगती रहती है।
- यह लकड़ी के टुकड़ों के टकराने के साथ झंकृत होती है।
- इसे हाथ की अंगुलियों व अंगूठे में पहनकर बजाया जाता है।
- इसे मंजीरे व इकतारे के साथ बजाया जाता है।
- इसका प्रयोग मुख्यतः भक्तजनों व साधु संतों द्वारा भजन व धार्मिक गीत गाते समय किया जाता है।
12. रमझोल-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- इसमें चमड़े की पट्टी पर बहुत सारे छोटे-छोटे घुंगरू सिले होते हैं।
- इसे नृत्य करते समय दोनों पैरों पर घुटनों तक बांधा जाता है।
- इसका प्रयोग होली पर गैर नृत्य करने वाले व भील लोग विभिन्न चक्राकार नृत्यों में करते हैं।
13. घुरालियों-
- यह घन वाद्य यंत्र है।
- यह 5-6 अंगुल लम्बी बाँस की खपच्चियों से बनाया जाता है।
- इस खपच्ची को एक ओर से छीलकर उस पर धागा बाँध दिया जाता है।
- इसे दाँतों के बीच दबाकर धागे को ढील व तनाव देकर बजाया जाता है।
- इसे कालबेलिया व गरासिया जनजाति द्वारा बजाया जाता है।