धर्म सुधार आन्दोलन (Religious Reform Movement/ Reformation)-
- 16वीं शताब्दी से पूर्व सम्पूर्ण यूरोपिय समाज धर्म केन्द्रित, धर्म प्रेरित और धर्म नियंत्रित था। किन्तु 16वीं शताब्दी में जर्मनी से शुरू होकर सम्पूर्ण यूरोप में प्रसारित धर्म सुधार रूपी चेतना ने धीरे-धीरे एक विस्तृत आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण कर लिया जिसे धर्म सुधार आन्दोलन के रूप में जाना जाता है।
धर्म सुधार आन्दोलन के कारण (Reasons for Religious Reform Movement)-
- 1. पुनर्जागरण (Renaissance)
- 2. धार्मिक कारण (Religious Reasons)
- 3. राजनीतिक कारण (Political Reason)
- 4. आर्थिक कारण (Economic Reason)
- 5. तात्कालिक कारण (Immediate Reason)
- 6. महान नेतृत्वकर्ता (Great Leaders)
1. पुनर्जागरण (Renaissance)-
- पुनर्जागरण के परिणाम स्वरूप-
- (I) स्वतंत्र चिन्तन (Independent Contemplation)- स्वतंत्र चिन्तन की प्रवृति का विकास हुआ। चूँकि स्वतंत्र चिन्तन का आधार तार्किकता होती है और तार्किकता स्वभावतः अन्धविश्वासों एवं रुढ़ियों से विरोधी होती है।
- (II) मानववाद (Humanism)- मानववाद का विकास हुआ। इस विचारधारा की स्वाभाविक रूप से इसकी प्रतिस्पर्धा ईश्वर केन्द्रित विचारधारा व धर्म से होती है।
- (III) राष्ट्रवाद की भावना का विकास- राष्ट्रवाद की भावना पोप की सर्वोच्चता के विरुद्ध प्रतिक्रिया का रूप ले लेती है।
- (IV) भौगोलिक खोजो को प्रोत्साहन मिला, इससे यूरोप का नवीन धर्मों, संस्कृतियों व वर्गों से सम्पर्क स्थापित हुआ। इसने यूरोप के मानसिक क्षितिज को विस्तृत किया।
- (V) वैज्ञानिक आविष्कार (Scientific Invention)- छापेखाने के आविष्कार ने साहित्य को सुलभ बना दिया। कॉपरनिक्स ने सूर्यकेन्द्रित विश्व की बात कहकर लोगों की सुष्त जिज्ञासाओं को जागृत कर दिया।
2. धार्मिक कारण (Religious Reasons)-
- चर्च में भ्रष्टाचार के तरीके-
- (I) सिमोनी (Simony)- चर्च के पदों एवं सेवाओं की बिक्री।
- (II) नेपोटिज्म (Nepotism)- चर्च के लाभकारी पदों का संबंधियों के बीच बँटवारा।
- (III) प्लुरेलिज्म (Pluralism)- एक पादरी द्वारा एक से अधिक पद ग्रहण करना।
- (IV) इनडलजेन्स (Indulgence)- चर्च के द्वारा पैसे के बदले बाँटे जाने वाले क्षमाप्रदान पत्र।
- 16वीं शताब्दी तक आते आते इसाई धर्म आडम्बरों से युक्त हो पतनोन्मुख हो चला था।
- चर्च भ्रष्टचार एवं विलासिता के केन्द्र बन गए।
- धार्मिक अधिकारी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहे थे।
- धर्माधिकारियों के शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी।
- चर्च धन के केन्द्र बन गए थे।
- इन तमाम कमियों के बावजूद चर्च अपने आप में सुधार का कोई प्रयास नहीं कर रहा था।
- चर्च में आंतरिक सैद्धान्तिक फूट धर्म सुधार का सबसे प्रधान कारण था।
- रोमन कैथोलिक चर्च के अन्दर ही कुछ अंसतुष्ट तत्वों ने चर्च का अभिभावकत्व अस्वीकार कर दिया।
- इन्होंने मनुष्य व ईश्वर के बीच प्रत्यक्ष संबंधों पर बल दिया तथा आस्थावानों की पुरोहिताई की बात की।
3. राजनीतिक कारण (Political Reason)-
- यूरोप में एक और जहाँ पोप सर्वोच्च सत्ता के अन्तर्राष्ट्रीय स्त्रोत के रूप में स्थापित था वहीं दूसरी ओर यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों का उदय हो रहा था।
- चर्च सभी राज्यों में नियुक्त धार्मिक अधिकारियों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से आन्तरिक हस्तक्षेप एवं राजनैतिक नियंत्रण स्थापित कर रहा था।
- इसके अलावा चर्च न्यायिक एवं आर्थिक शक्तियाँ भी ग्रहण कर रहा था।
4. आर्थिक कारण (Economic Reason)-
- आर्थिक कारणों की वजह से भी समाज के अनेक वर्ग इस समय चर्च का विरोध कर रहे थे जैसे-
- (I) शासक (Rulers)- राष्ट्रराज्यों के उदय के कारण राजा को विशाल सेना व प्रशासन की आवश्यकता थी इसके लिए उसे अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी, लेकिन यह धन चर्च की तरफ जा रहा था तथा राजा के अनुसार यह धन उसके हिस्से का था।
- (II) सामान्य जनता (General Public)- सामान्य जनता चर्च को अनेक प्रकार के कर दे रही थी जैसे- 'टीथे'। लेकिन इसके बदले में उन्हें कुछ भी नहीं मिल रहा था।
- (III) पूँजीपति वर्ग (Capitalist Class)- पूँजीपति वर्ग चर्च की अनुत्पादक सम्पदा का विरोध कर रहा था।
- (IV) सामान्य पादरी वर्ग (Ordinary Clergy)- चर्च के द्वारा सामान्य पादरी वर्ग का भी शोषण किया जा रहा था, जिसका तरीका "फ्रूट ऑफ द फर्स्ट ईयर" (Fruit of the First Year) एवं "पीटर्स पेन्स" (Peter's Pens) था।
5. तात्कालिक कारण (Immediate Reason)-
- पोप लियों दशम ने इण्डलजेन्स की बिक्री प्रारम्भ की इसकी मान्यता थी की व्यक्ति क्षमा पात्रों को खरीद कर अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है। अर्थात् पोप लियों दशम के द्वारा इण्डलजेन्स की ब्रिकी करना।
6. महान नेतृत्वकर्ता (Great Leaders)-
- (I) मार्टिन लूथर (Martin Luther)- प्रोटेस्टेंट सुधारक
- (II) इरेसमस (Erasmus)- प्रोटेस्टेंट सुधारक
- (III) ज्विंगली (Zwingli)- प्रोटेस्टेंट सुधारक
- (IV) जॉन काल्विन (John Calvin)- प्रोटेस्टेंट सुधारक
- (V) इग्नेशियस लायोला (Ignatius of Loyola)- कैथोलिक सुधारक
प्रमुख धर्म सुधारक (Major Religious Reformers)-
- 1. आरंभिक धर्म सुधारक (Initial Religious Reformers)
- 2. महान धर्म सुधारक (Great Religious Reformers)
1. आरंभिक धर्म सुधारक (Initial Religious Reformers)-
- (I) जॉन वाइक्लिफ (John Wycliffe)- 1328- 1384 ई.
- (II) जॉन हस (Jan Hus)- 1369- 1415 ई.
- (III) सेवोनारोला (Savonarola)- 1452- 1498 ई.
- (IV) इरेसमस (Erasmus)- 1466- 1536 ई.
(I) जॉन वाइक्लिफ (John Wycliffe)- 1328- 1384 ई.
- जॉन वाइक्लिफ, इंग्लैण्ड का निवासी था।
- इसने चर्च के भ्रष्ट तंत्र, पोप एवं आडम्बरों का विरोध किया।
- इसने पोप को ईश्वर का प्रतिनिधि स्वीकार नहीं किया।
- इसने ईसाई धर्म के वास्तविक सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने का समर्थन किया एवं मध्यस्थों को अस्वीकार कर दिया।
- इसने चर्च की सम्पति पर राज्य के अधिकार का समर्थन किया।
- इसे "दि मार्निंग स्टार ऑफ रिफार्मेशन" (The Morning Star of Reformation) कहा जाता है।
- इसके समर्थकों को 'लोलार्द' (Lollard) कहा जाता था।
(II) जॉन हस (Jan Hus)- 1369- 1415 ई.
- जॉन हस, बोहेमिया का निवासी था।
- यह वाइक्लिफ के विचारों का समर्थक था।
- इसने कहा कि एक सामान्य ईसाई को पवित्र बाइबिल के अध्ययन से मुक्ति मिल सकती है।
- इसे चर्च द्वारा जिन्दा जला दिया गया था।
(III) सेवोनारोला (Savonarola)- 1452- 1498 ई.
- सेवोनारोला ,फ्लोरेंस (इटली) का निवासी था। (यह एक पादरी था।)
- इसने पोप के भ्रष्ट एवं विलासितापूर्ण जीवन की कटु आलोचना की।
- इसे भी चर्च द्वारा जिन्दा जला दिया गया था।
(IV) इरेसमस (Erasmus)- 1466- 1536 ई.
- इरेसमस, हॉलैण्ड का निवासी था।
- इरेसमस ने चर्च का उपहास उडाया और चर्च का महत्व कम किया।
- इरेसमस की पुस्तक- "द प्रेज ऑफ फॉली" (The Praise of Folly)
- इरेसमस उग्र नहीं था वह विवेक एवं बुद्धि द्वारा चर्च में सुधार लाना चाहता था।
- इसके बारे में कहा जाता है कि "लूथर के क्रोध की अपेक्षा इरेसमस के उपहासों ने पोप को अधिक हानि पहुँचाई"
2. महान धर्म सुधारक (Great Religious Reformers)-
- (I) मार्टिन लूथर (Martin Luther)- 1483- 1546 ई.
- (II) हल्ड्रिच ज्विंगली (Ulrich Zwingli)- 1484- 1531 ई.
- (III) जॉन काल्विन (John Calvin)- 1509- 1564 ई.
(I) मार्टिन लूथर (Martin Luther)- 1483- 1546 ई.
- मार्टिन लूथर का जन्म जर्मनी के एक कृषक परिवार में हुआ।
- इसने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया एवं विटेनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त हुआ।
- 1512 ई. में इसने रोम की यात्रा की। यहाँ पोप की जीवन शैली देखकर धर्मशास्त्रों में उसकी आस्था समाप्त हो गई। तथा उसके मस्तिष्क में विद्रोह की चिंगारी जल उठी।
- 1517 ई. में पोप लियो दशम के अधिकृत प्राधिकारी के रूप में टेटजल विटेनबर्ग में इण्डलजेन्स की बिक्री कर रहा था।
- लूथर ने इस पाखण्ड के विरुद्ध विद्रोह कर दिया एवं लेटिन भाषा में 95 थीसिस लिखकर विटेनबर्ग चर्च के बाहर चिपका दिए।
- इन थीसिस का जर्मन भाषा में भी अनुवाद किया गया एवं लोगों को बांट दिया गया।
- मार्टिन लूथर मानता था कि जिसने हृदय से प्रायश्चित कर लिया, ईश्वर उसे पहले ही क्षमा कर देता है।
- मार्टिन लूथर ने यह स्वीकार नहीं किया कि पोप कभी गलती नहीं कर सकता।
- मार्टिन लूथर केवल तीन संस्कारों को ही स्वीकार करता है। जैसे-
- (A) नामकरण (Baptism)
- (B) प्रायश्चित (Penance)
- (C) प्रसाद (Eucharist)
- अपने विचार जनता तक पहुँचाने के लिए मार्टिन लूथर ने तीन पुस्तिकाएँ प्रकाशित की जैसे-
- (A) जर्मन सामन्तवर्ग को एक सम्बोधन (An address to the Christian Nobility of German Nations)
- (B) ईश्वरीय चर्च की बेबीलोनियाई कैद (Prelude on the Babylonian Captivity of the Church of God)
- (C) ईसाई मनुष्य की मुक्ति (On the Freedom of Christian Man)
- 1520 ई. में पोप ने मार्टिन लूथर को धर्म से निष्कासित कर दिया इन, आदेशों को पेपलबुल (Papal bull) कहा जाता है।
- मार्टिन लूथर ने सार्वजनिक रूप से इन आदेशों को जला दिया।
- 1525 ई. में जर्मनी के किसानों ने विद्रोह कर दिया किन्तु मार्टिन लूथर ने इनको समर्थन न देकर राजाओं को अपना समर्थन दिया।
प्रथम धर्म सभा (First Religious Conference)- 1526 ई.
- समय- 1526 ई.
- स्थान- स्पीयर
- 1526 ई. में धर्म के प्रश्नों का समाधान करने के लिए स्पीयर में प्रथम धर्मसभा बुलाई गई।
- इस सभा में जर्मन शासक वर्ग 2 भागों में विभाजित हो गया।
दूसरी धर्म सभा (Second Religious Conference)- 1529 ई.
- समय- 1529 ई.
- स्थान- स्पीयर
- 1529 ई. में स्पीयर में दूसरी धर्मसभा बुलाई गई।
- इस सभा में लूथरवाद के विरुद्ध अनेक कठोर प्रस्ताव पारित किए गए।
- मार्टिन लूथर के समर्थक शासकों ने इन प्रस्तावों का विरोध किया अतः इन शासकों को प्रोटेस्टेंट कहा गया।
- यह विरोध 19 अप्रैल, 1529 को किया गया था। अतः इसी दिन से प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय माना जाता है।
- अब जर्मनी में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया जो 1555 ई. में आंग्सबर्ग की संधि द्वारा समाप्त हुआ।
आंग्सबर्ग की सन्धि (Treaty of Augsburg)- 1555 ई.
- समय- 1555 ई.
- प्रमुख शर्तें (Major Conditions)-
- (A) हर शासक को अपना एवं अपनी जनता का धर्म चुनने की स्वतंत्रता दी गई।
- (B) 1552 ई. से पूर्व प्रोटेस्टेंटों ने चर्च की जो सम्पति हथिया ली थी उसे मान्यता दे दी गई।
- (C) लूथरवाद को पृथक धर्म के रूप में मान्यता दे दी गई।
- (D) कैथोलिक बाहुल्य क्षेत्रों में लूथरवादियों को धर्म-परिवर्तन के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
- (E) धार्मिक आरक्षण विधान के अनुसार प्रोटेस्टेंट बनने वाले कैथोलिकों को अपने पद त्यागने होंगे।
आंग्सबर्ग की सन्धि की कमियाँ (Drawbacks of Treaty of Augsburg)-
- (A) केवल लूथरवाद को ही मान्यता दी गई अन्यों को नहीं।
- (B) जनता अपना धर्म निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र नहीं थी।
- (C) धर्म के नाम पर 1618 ई. में जर्मनी में पुनः गृह युद्ध शुरू हो गया, जो कि 1648 ई. में वेस्टफेलिया की संन्धि (Treaty of Westphalia) के द्वारा समाप्त हुआ।
मार्टिन लूथर की कमियाँ (Martin Luther's Drawbacks)-
- (A) यह राजतंत्रात्मक व्यवस्था का पक्षधर था।
- (B) यह राजत्व के दैवीय अधिकारों के सिद्धान्त का पक्षधर था।
- (C) यह दास प्रथा का समर्थक था।
- (D) इसने किसान विद्रोह का समर्थन नहीं किया।
(II) हल्ड्रिच ज्विंगली (Ulrich Zwingli)- 1484- 1531 ई.
- यह स्विजरलैण्ड का निवासी था।
- हल्ड्रिच ज्विंगली ने धर्म के क्षेत्र में उपवास और सन्तों की पूजा का विरोध तथा पादरियों के विवाह का समर्थन किया।
- 67 प्रश्न इससे संबंधित थे।
- 1523 ई. में वह कैथोलिक चर्च से अलग हो गया तथा 1525 ई. में इसने रिफार्म्ड चर्च का निर्माण किया।
- 1531 ई. में 'केप्पल की सन्धि' (Treaty of Kappel) के द्वारा रिफार्म्ड चर्च को मान्यता प्राप्त हुयी।
- 1509 ई. में फ्रांस में जॉन काल्विन का जन्म हुआ।
- 1533 ई. में यह प्रोटेस्टेंट बन गया।
- फ्रांस में चर्च को सुधारने के प्रयासों के चलते वहाँ इसका विरोध हुआ तो यह स्विट्जरलैण्ड चला गया।
- स्विट्जरलैण्ड में जॉन काल्विन ने 'ईसाई धर्म की संस्थापनाएँ' (Institutes of Christian Religion) या 'ईसाई धर्म के आधारभूत सिद्धान्त' (The Basics of Christianity) नामक पुस्तक लिखी।
- जॉन काल्विन एक उग्र विचारक था।
- इसने त्योहारों, आमोद-प्रमोद मण्डलियों एवं थियेटरों का विरोध किया।
- इसने व्याभिचार के लिए मृत्युदण्ड का समर्थन किया।
- जॉन काल्विन के प्रमुख सिद्धान्त-
- (A) पूर्व नियति का सिद्धान्त (Doctrine of Predestination)
- (B) मनोनयन की अवधारणा (The Concept of Election)
- जॉन काल्विन के अनुयायी-
- (A) इंग्लैण्ड में इसके अनुयायी को 'प्यूरिटन' (Puritans) कहते थे।
- (B) स्कॉटलैण्ड में इसके अनुयायी को 'बेटोरियन' (Presbyterian) कहते थे।
- (C) फ्रांस में इसके अनुयायी को 'ह्यूगनॉट' (Huguenots) कहते थे।
जॉन काल्विन व मार्टिन लूथर में अंतर (Difference between John Calvin and Martin Luther)-
- जॉन काल्विन प्रोटेस्टेंट होते हुये भी अनेक बातों में मार्टिन लूथर से भिन्न था-
- (अ) जॉन काल्विन
- (ब) मार्टिन लूथर
(अ) जॉन काल्विन-
- यह धर्म एवं राजनीति को पूर्णतया पृथक करता है।
- जॉन काल्विन जनतंत्रात्मक (गणतंत्र) शासन व्यवस्था का समर्थक था।
- जॉन काल्विन ने 2 संस्कारों को स्वीकार किया।
- जॉन काल्विन ने चमत्कारों का विरोध किया।
- जॉन काल्विन नियतिवाद में विश्वास करता था।
- जॉन काल्विन कठोर तरीके से ईसाई धर्म में आमूल-चूल परिवर्तन का पक्षधर था।
- जॉन काल्विन ने व्यापारी वर्ग एवं मध्यवर्ग को अपना समर्थक बनाया।
(ब) मार्टिन लूथर-
- यह धर्म एवं राजनीति को पूरी तरह पृथक नहीं करता है।
- मार्टिन लूथर राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का समर्थक था
- मार्टिन लूथर ने 3 संस्कारों को स्वाकीर किया।
- मार्टिन लूथर ने चमत्कारों को प्रतीकात्मक रूप से स्वीकार किया।
- मार्टिन लूथर ने कर्मवाद में विश्वास करता था।
- मार्टिन लूथर ईसाई धर्म में उदारवादी दृष्टिकोण से सुधार लाना चाहता था।
- मार्टिन लूथर ने राजाओं एवं कृषकों का समर्थन प्राप्त किया।
एनाबैपटिस्ट आन्दोलन (Anabaptist Movement)-
- यह एक पूर्णपरिवर्तनवादी सुधार आन्दोलन था, जो स्वेच्छापूर्वक तथा व्यस्क होने पर अपना धर्म स्वीकार करने के सिद्धान्त पर आधारित था।
- इसे एडल्ट बैपटिज्म भी कहा गया।
- प्रथम बार इनके द्वारा धार्मिक सिद्धान्त के रूप में सिहष्णुता की मांग की गई।
आंग्ला धर्म सुधार/ एंग्लिकन विचारधारा (English Reformation/ Anglicanism)-
- आंग्ल धर्म सुधार आंदोलन का नेतृत्व इंग्लैण्ड के शासकों ने किया। जैसे-
- 1. हेनरी अष्टम (Henry-VIII)
- 2. एडवर्ड-VI (Edward-VI)- 1547-1553 ई.
- 3. मैरी-प्रथम (Mary-I)- 1553- 1558 ई.
- 4. एलिजाबेथ-प्रथम (Elizabeth-I)- 1558-1603 ई.
1. हेनरी अष्टम (Henry-VIII)-
- इसने सर्वोच्चता का अधिनियम पारित करवाया।
- इसके अनुसार इंग्लैण्ड के शासक को वहाँ के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी घोषित किया गया।
- आंग्ल चर्च का पोप से संबंधि विच्छेद हो गया।
- मठों की सम्पत्तियाँ जब्त कर ली गई।
- अब क्रेमर को कैंटरबरी का बिशप बनाया गया। जिसने हेनरी अष्टम को विवाह विच्छेद की अनुमति दी तथा अब हेनरी अष्टम ने ऐन बोलिन से विवाह किया।
- हालांकि अभी भी आंग्ल चर्च कैथोलिक चर्च की बना रहा।
2. एडवर्ड-VI (Edward-VI)- 1547-1553 ई.
- एडवर्ड-VI, हेनरी-VIII का उत्तराधिकारी था।
- इसने आंग्ल चर्च को प्रोटेस्टेंट चर्च में बदल दिया।
- इस समय क्रेमर द्वारा सामान्य प्रार्थना पुस्तक प्रकाशित करवाई गई और प्रसिद्ध 42 सिद्धांतों की भी घोषणा की गई।
3. मैरी-प्रथम (Mary-I)- 1553- 1558 ई.
- इसने पुराने शासकों के कार्यों को नकार दिया तथा रोम के साथ पुनः संबंध स्थापित किये।
- इसने स्पेन के कट्टर कैथोलिक शासक फिलिप-द्वितीय से विवाह किया तथा क्रेमर को जिन्दा जला दिया।
4. एलिजाबेथ-प्रथम (Elizabeth-I)- 1558-1603 ई.
- इसके द्वारा "सर्वोच्चता व एकरुपता का अधिनियम" पारित किया गया।
- इस समय आंग्ल चर्च (एपिस्कोपल चर्च) की स्वतंत्रता फिर से स्थापित हुई।
- क्रेमर की पुस्तक का संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ। तथा 42 सिद्धांतों में कुछ संशोधन कर उन्हें 39 सिद्धांतों के रूप में पुनः स्थापित किया गया।
- इसके समय आंग्ल धर्म का अन्तिम स्वरुप निश्चित हुआ जो कि इतिहासकार फिशर के शब्दों में-
- (I) प्रशासनिक रूप से इरेस्टीयन
- (II) कर्मकाण्ड में रोमन
- (III) धर्मशास्त्रीय सन्दर्भ में काल्विनवादी था
- आंग्ल चर्च का मिश्रित स्वरुप ही इसके स्थायित्व का आधार बना।
प्रति धर्म सुधार आन्दोलन (Counter-Reformation)-
- प्रोटेस्टेंटवाद के प्रवाह को रोकने के लिए उपायों के रूप में दो महत्वपूर्ण सुझाव सामने आए :-
- (I) प्रथम- वेनिस (इटली) के उदारवादी कार्डिनल कोन्टारैनी का समझौता एवं मेलमिलाप का प्रस्ताव था।
- (II) द्वितीय- नेपुल्स के कार्डिनल करॉफा का कैथोलिक धर्म में आन्तरिक सुधारों का प्रस्ताव था।
- करॉफा का प्रस्ताव स्वीकार हुआ तथा वह पॉल-चतुर्थ के नाम से पोप बना।
- पॉल-चतुर्थ (करॉफा) ने अपने समर्थकों की इच्छानुसार इटली के ट्रेंट नामक स्थान पर चर्च की परिषद का आयोजन किया जो 1545 ई. से 1563 ई. तक चली।
- इस सभा (ट्रेंट परिषद) में दो प्रकार के निर्णय लिये गए। जैसे-
- 1. सिद्धान्तगत निर्णय (Theoretical Decision)
- 2. सुधार कार्य (Reformation Work)
1. सिद्धान्तगत निर्णय (Theoretical Decision)-
- चर्च के मूल सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया गया।
- चर्च व पोप की सर्वोच्चता स्थापित की गई।
- परम्परागत मान्यताओं को पुनः बहाल किया गया।
- 7 संस्कारों को मान्यता दी गई।
- मुक्ति का माध्यम चर्च द्वारा सम्पन्न कार्य माने गए एवं चमत्कारों में आस्था प्रकट की गई।
- बाइबिल के लैटिन संस्करण को ही स्वीकार किया गया।
- बाइबिल की अन्तिम व्याख्या का अधिकार सिर्फ चर्च को दिया गया।
2. सुधार कार्य (Reformation Work)-
- चर्च में प्रचलित सिमोनी, नेपोटिज्म, प्लूरेलिज्म पर रोक लगाई गई। तथा योग्यता के आधार पर नियुक्ति की व्यवस्था की गई।
- क्षमापत्रों की बिक्री पर रोक स्वीकार की गई।
- पादरियों के आचरण को संयमित एवं आदर्श बनाने का प्रयास किया गया।
- पादरियों की शिक्षा-दीक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई।
- पादरियों को प्रादेशिक भाषाओं में उपदेश देने की छूट दी गई।
- विरोधियों की पुस्तकें पढ़ने पर निषेध किया गया।
- इन निर्णयों को लागू करने के लिए धार्मिक न्यायालयों (इनक्यूजिशन) को मान्यता दी गई।
सोसायटी ऑफ जीसस (Society of Jesus)-
- संस्थापक- इग्नेशियस लायोला
इग्नेशियस लायोला (Ignatius of Loyola)- 1491-1556 ई.
- इसने सोसायटी ऑफ जीसस की स्थापना की।
- सोसायटी ऑफ जीसस के सदस्य 'जेसुइट' (Jesuits) कहलाते थे।
- 1535 ई. में रोमन कैथोलिक चर्च ने जीसस समाज (Jesus Society) को मान्यता दे दी।
- जीसस समाज कठोर अनुशासन एवं सैनिक आधार पर संगठित था।
- सोसायटी ऑफ जीसस के प्रत्येक सदस्य को दीनता, पवित्रता, आज्ञापालन एवं पोप के प्रति समर्पण की शपथ लेनी होती थी।
- समाज के सदस्यों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन एवं उत्प्रेरण के लिए लायोला ने "स्पीरिचुअल एक्सरसाइजेज" (Spiritual Exercises) की रचना की।
- सोसायटी ऑफ जीसस ने कैथोलिक शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का कार्य किया।
धर्म सुधार आन्दोलन के परिणाम (Consequences of the Reformation)-
- 1. धार्मिक परिणाम (Religious Consequences)
- 2. राजनीतिक परिणाम (Political Consequences)
- 3. सामाजिक परिणाम (Social Consequences)
- 4. आर्थिक परिणाम (Economic Consequences)
- 5. अन्य परिणाम (Other Consequences)
1. धार्मिक परिणाम (Religious Consequences)-
- मध्यकालीन रुढ़ियों एवं अंधविश्वासों पर आघात हुआ।
- धर्म के नाम पर युद्ध शुरू हुए।
- ईसाई धर्म का विभाजन हुआ।
- प्रति धर्म सुधार आन्दोलन शुरू हुआ।
- धार्मिक सहिष्णुता का उदय हुआ।
- धर्म के द्वारा की जा रही हस्तक्षेप में कमी आयी।
2. राजनीतिक परिणाम (Political Consequences)-
- राष्ट्रवाद की भावना का उदय हुआ।
- राष्ट्र राज्यों का उदय हुआ।
- सामन्तवाद का पतन हुआ।
- पोप की सर्वोच्चता का अन्त हुआ।
- धर्म निरपेक्षता का विकास हुआ।
- संविधानवाद का विकास हुआ।
3. सामाजिक परिणाम (Social Consequences)-
- समाज में नैतिक अनुशासन का विकास हुआ।
- विवाह की अवधारणा प्रभावित हुई।
- व्यक्तिवाद का सिद्धांत मजबूत हुआ।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विकास हुआ।
4. आर्थिक परिणाम (Economic Consequences)-
- (I) आर्थिक विकास (Economic Development)- धर्म सुधारकों ने आर्थिक रूप से उदार सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
- (II) पूँजीवाद का उदय (Rise of Capitalism)- इस समय आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि हुई तथा लाभ कमाने पर बल दिया गया।
- (III) वाणिज्यवाद का विकास (Development of Mercantilism)- इस विचारधारा में राज्य ने व्यापारिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। क्योंकि इसका लक्ष्य GGG (Gold, Glory & God) था।
5. अन्य परिणाम (Other Consequences)-
- धर्म सुधार ने बौद्धिक प्रगति को पुष्पित एवं पल्लवित किया।
- क्षेत्रीय भाषाओं को प्रश्रय (Development) मिला तथा बाइबिल का लोकभाषाओं में अनुवाद हुआ। जैसे-
- (I) जॉन काल्विन ने बाइबिल का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया।
- (II) मार्टिन लूथर ने बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।
- धार्मिक युद्धों ने बड़े स्तर पर असहिष्णुता का भी परिचय दिया इससे बड़े स्तर पर जनसंहार हुआ एवं ललित कलाओं को नुकसान पहुँचा।